बापू की स्मृति और उत्तराखडियों का काला दिवस

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  • उत्तराखंडियों के दिल में आज भी घटना तीर की तरह चुभी है 
  • आखिर क्या अपराध था  उत्तराखंड से चले उन सत्याग्रहियों का

वेद विलास  उनियाल

कुछ अजीब लग सकता है कि जिस दिन पूरा राष्ट्र  महात्मा  गांधी को याद कर रहा होता है,  उत्तराखंडियों के दिल में एक घटना तीर की चुभी है और वह बापू  को तो याद करते है  मगर काला दिवस मनाना भी नहीं भूलते।  दिल्ली का जंतर मंतर, बुराडी  पंचकुला  चंडीगढ  नैनीताल अल्मोडा  और राज्य की राजधानी देहरादून  और मुजफ्फरनगर का रामपुर तिराहा अगर गगनभेदी नारों से गूंजा , मशालें  जली  तो इसके पीछे के मर्म को जानना जरूरी है। उत्तराखंड के लोग इस बात को भी जानते हैं कि इसी दिन पर देश उन लाल बहादुर शास्त्री को भी याद करता है जिन्होंने जय जवान जय किसान का उद्गोष किया साथ ही  ऊंचे शिखर पर पहुच कर अपनी सादगी और विनम्रता को नहीं भूले।

ऐसे समय जब पित्र दिवस चल रहे हों  उत्तराखंड के लोगों की भावुकता उन शहीदों के प्रति उमडना स्वाभाविक जिन्होंने इस राज्य के लिए अपना बलिदान दिया। उत्तराखंड के लोग इन शहीदों को पित्र की तरह ही मानते हैं। 24 साल पहले की वो क्रूर  काली रात  रहरह कर उत्तराखँडियों को झकझोकरती है।  यही सवाल उन्हें मन में कचौटता है कि ऐसे कारण है कि हम शहीदों और उनके परिजनों को न्याय नहीं दिला पाए। ऐसी कौन सी वजह  है कि मुजफ्फरगर के दोषिय़ों को अब तक सजा नहीं हो पाई।  बल्कि उनकी दागदार वर्दियों में और तमगे जडे गए।   शुचिता और  हकों की बात करने वाला यह देश उस जिलाधिकारी को शर्मिंदा क्यों नहीं कर पाया जिसने कहा था कि रात  महिलाएं अकेली जाएंगी तो ऐसा हो सकता है।  मोमबत्ती को जलाकर सड़कों पर फेरी करने वालों से  बुआ सिंह जैसा पुलिस अधिकारी डर क्यों नहीं पाया।  बापू के जन्म दिवस पर दो दृश्य वहां दिखे और घटे थे मानवाधिकार वालों ने उनके गुनहागारों को सजा दिलाने का प्रयास क्यों नहीं किया।

जिन गांधी पर हम इतनी श्रद्धा रखते है वो होते तो शायद इस काली घटना के विरोध अनवरत धरने और भूख हडताल पर बैठ जाते।  न्याय दिलाने के लिए चट्टान की तरह अड जाते।  कैसा खेल है एक तरफ हम बापू को इस दिन रह  रह कर याद करते है दूसरी तरफ  उनके ही देश की शहीदों के परिजन, आहत महिलाओं की न्याय की पुकार नहीं सुन पाते।

बेशक आने वाले समय में समाजवादी पार्टी के नेता मुलायम सिंह यादव को राजनीतिक विश्लेषक धरती पुत्र,  समाजवादी  प्रखर नेता  जमीन से जुडा नेता, अपनों की मदद के लिए आने वाला नेता  न जाने किन किन बातों से विभूषित करें याद करे। हो सकता है उनका प्रखर प्रशंसक भारत रत्न की भी मांग कर दे। लेकिन उत्तराखँड आंदोलन के दमन और मुजफ्फरनगर कांड   के पूरे परिदृश्य  मे एक शासक की भूमिका के विपरीत अपने वोटों की चिंता में डूबा शासक काले छींटों से बचाव नहीं कर सकता है। जो नेता खांटी नेता क रूप में जाना जाता, जिसे लोहिया और जयप्रकाश नारायण जैसे नेताओं के शिष्यों की परंपरा सबसे अव्वल माना जाता, जिन्हें पहाड के लोग एचएनबहुगुणा से उनकी करीबी के चलते आला स्तर का सम्मान देते थे, वह अपनी भूमिका में लांछित हुए। वे धरती पुत्र तब कहे जाते अगर घटना पर त्वरिंत जांच कराते। उस  क्रूर काली  रात के अपराधियों को किसी भी तरह छोडा नहीं जाना चाहिए था। कहीं न कहीं मुलायम सिंह अपने राजकाज में उस अवस्था को जा चुके थे जहां इस डीएम अश्लील और गंदी टिप्पणी करने पर नहीं चूका ।

आज अंनत कुमार को पोते या पोतियां अगर अपने दादा की उस टिप्पणी को जाने तो शायद नए समय के भारत के बच्चे जिस तरह अपनी राय खुलकर देते हैं   शायद वो भी कहेंगे कि  दादा यह कहते हुए तुम्हें शर्म नहीं आई।  जिस बुआ सिंह के वर्दी न जाने कितने तमगे लगे होंगे उसकी तीसरी पीढी आज मुजफ्फरनगर के रामपुर तिराहे की घटना के बाद पुलिस के बर्ताव को जान ले तो  कहीं वो जिक्र नहीं करना चाहेंगे कि उनके परिवार का बुजुर्ग बुआ सिह पुलिस की किसी बडी जिम्मेदारी में था। और वह अपने दायित्व कर्तव्यों से विमूख होकर उस भूमिका में था जहां अपराधी ऐसे अधिकारी के होते अपने को सुरक्षित महसूस कर रहे थे।  उत्तराखंड के आदोलनकारियों ने  अपनी लडाई से राज्य को पा लिया। शहीदों ने उन्हं राज्य दिलाया । लेकिन दो अक्टूबर के उन गुनहगारों को आज तक सजा नहीं मिली।

बेशक मुलायम सिंह ने राजनेता के दायित्व को न निभा पाने के एवज में क्षमा मांगी हो, लेकिन उप्र या उत्तराखंड के स्तर पर भी वहां की घटना पर जिस तेजी और तत्परता से काम होना चाहिए था वह नहीं हुआ।  उत्तराखंड की जनता मुलायम सिंह सरकार पर जितना कहना था वह चुकी। वह इतिहास है। उसे बार बार दोहराने का कोई मतलब भी नहीं। लेकिन दो अक्टूबर आता है तो यह बात कचौटती है कि आखिर न्याय क्यों मिलता।   सिक्ख दंगों और गुजरात के दंगों के मसले में जिस तरह तेजी से परी सक्रियता से छानबीन हुई  विशेष जांच आयोग बने।  फिर ऐसी कौन सी वजह है कि महात्मा गांधी के जन्म दिवस में रामपुर तिराहे में मानवता का दमन करने लज्जित करने वालों को सजा दिलाने के लिए कोई ठोस पहल आज तक नही हो पाई है।

क्या अपराध था  उत्तराखंड से चले उन सत्याग्रहियों का ।  अंग्रेजो से मुक्त हुए देश की राजधानी में वह अपनी अलग राज्य की मांग को लेकर जा रहे थे। किन इरादों के साथ उन्हें रोका गया।  उनके शरीर में गोलियां चलाई गई।  रामपुर केतिराहे के  कुछ  मानवीय लोग आगे बढकर सहारा नहीं देते तो उन  चीरे वस्त्रों में महिलाएं कैसे घर पहुंची , कल्पना नहीं कर सकते।  इन इलाकों के भद्र सज्जन लोगों ने लाचार टूटे घायल अपमानिक लोगों को सहारा दिया।  पानी पिलाया  घर तक ले गए।  उत्तराखंड की जनता उन लोगो के प्रति अगाध श्रद्धा रखती है जिन्होंने शहीदों के उस स्थल में स्मारक के लिए जमीन तक दे दी। वो लोग भी आज समन्वित स्वर में यही बात उठाते है कि उनके प्रांगणों में क्रूरता करने वालों को आज तक सजा क्यों नहीं दिला पाए। जिस घटना को इलाहबाद उच्च न्यायालय में मानवता कलंक बताते हुए तत्कालीन जिलाधिकारी और पुलिस अधिकारियों पर जिम्मेदारी और कर्तव्य के सवाल उठाए थे।  फिर कौन सी ऐसी परिस्थितियां है कि गुनहगार आज तक सजा नहीं पाए। इनहें कौन संरक्षण देता आया है।

निश्चित जिस देश में ऐसी घटना पर शासन . राजनेता  मानवाधिकार सब  अपने अपने फेर में दिखते हों  तब   उत्तराखंड के लोगों के पास इसके सिवा चारा क्या है कि वह उस दिन को काला दिवस के रूप मे मनाए जिस दिन देश बापू को याद कर रहा होता है।  यह भी एक तरह  का उद्घोष है कि बापू तेरे देश में अब भी   रामपुर तिराहा  घटता है और  तैनात  अधिकारियों को कडी  सजा के बजाय पद्दोनत्ति होती है। गुनहगार बेपरवाह होकर खुले घूमते हैं।    दिल्ली के जंतर मंतर में यज्ञ हुआ। 

काला दिवस श्र्द्धाजलि सभा में देवसिंह रावत  अनिल पंत  सुरेंद्र हाल्सी, मीनाक्षी भट्ट प्रताप शाही, गिरजा पाठक दिनेश ध्यानी रोशनी चमोली, कुसुम भट्ट  पूरऩ चंद कांडपाल,  सुनील नेगी जैसे कई लोग उमडे।  पंचकुला में  उत्तराखंड युवा परियद की भजन संध्या और  श्रद्धाजलि सभा में मदन रावत,  उमेश पालिवाल  महिपाल नेगी के साथ विक्रम नेगी सहित कई लोग आए।  बुराडी में युवाओं ने मशाल जुलूस निकाला। उत्तराखंड की राजधानी सहित हर जगह काला दिवस मना।  यही गूंज उठी आखिर  न्याय कब मिलेगा।