मकड़ी के जालों से अटी वीरांगना तीलू रौतेली व उनकी बिंदुली घोड़ी की कौन सुध लेगा!

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मनोज इष्टवाल
रिंगवड़ा रावतों की बेटी व पूर्व काबीना मंत्री अमृता रावत ने 2006 में वीरांगना तीलू रौतेली के पराक्रम की गाथाओं को झांसी की राणी जैसा स्वरूप देकर जहाँ गोरला वंशजों की बेटी या रौतेली की बीरोंखाल, उनके पैत्रिक गॉव गुराड़ व जनदा देवी में उनकी भव्य मूर्तियों का अनावरण किया वहीँ जणदा देवी में लगी उनकी मूर्ती व घोड़ी बिंदुली मकडी के जालों से अटी हुई थी. आश्चर्यजनक बात तो ये है कि यह वीरांगना जिसका आज भी रणभूत नचाया जाता है इसी क्षेत्र की बेटी हुई फिर भी उसकी मूर्ती की ओर किसी दुकानदार की नजर नहीं गयी !  सिर्फ दो सीढियां चढ़कर मूर्ती के जाले को हटाना भी लोगों को गंवारा नहीं है यह हमारी अकर्मण्यता को दर्शाता है.

शायद तीलू रौतेली विश्व की वह पहली ऐसी वीर बाला होगी जिसने 15 बर्ष की उम्र से लेकर 20 बर्ष की उम्र तक 7 युद्ध ऐसे प्रभावी कत्यूरियों से लडे जिन्हें अपनी वीरता पर बेहद घमंड था जो बर्षों तक एक छत्र राज करते रहे.

भूप सिंह गोरला जोकि 17वीं सदी में चौन्दकोट गढ़ का गढ़पति होता था वह गुराड़स्यूं गॉव के गुराड़ का निवासी था. तब रिंगवाडा रावत, सिपाही नेगी व गोरला रावत चौन्दकोट गढ़ के रसूकदार थोकदार माने जाते थे, इडा के सिपाही नेगियों के पास बेहद उन्नत घोड़े व सैन्य टुकड़ी हुआ करती थी जिसका काफी दबदबा भी था इसीलिए उन्होंने तल्ला इड़ा में एक बिशाल क्वाठा (किला) बनवाया था. लेकिन ये भी सच था कि इनकी ज्यादातर जिंदगी गढ़राज्य की सीमा सुरक्षा में ही चली जाती थी.जहाँ इतिहासकार इसे 17वीं सदी की घटना या वृत्तांत समझते हैं वहीँ मुझे लगता है कि कहीं न कहीं यह लेखकीय गलती है क्योंकि सत्रहवीं सदी तक तो कुमाऊ में चंद वंशीय राजा राज करते थे जबकि तीलू रौतेली का युद्ध कत्युरी काल का है जो संवत 700 ई. का माना जा सकता है. ऐतिहासिक दृष्टि से अभी इस पर और अधिक कार्य की आवश्यकता है ये मेरा मानना है.

तीलू रौतेली को तीलू रावत या तीलू गोरला क्यों नहीं बोला गया आज तक यह प्रश्न किसी ने नहीं उठाया अत: मैं इस जिज्ञासा को शांत कर दूँ कि तीलू का बचपन से ही शौक मर्दों जैसा रहा. घुड़सवारी करना, तलवार चलाना इत्यादि. वह बचपन से ही अपने को पुरुष कहलाना पसंद करती थी. तीलू को रौतेली इसलिए कहा गया कि चौन्दकोट के सीमान्त क्षेत्र में आज भी ननद को रौतेली ही कहा जाता है.
ज्ञात हो कि 15 वर्ष की आयु में तीलू रौतेली की शघाई इडा गाँव (पट्टी मोंदाडस्यु) के थोकदार भुप्पा नेगी के पुत्र हीरा नेगी के साथ हुई थी ! कहीं पांवडो में हीरा नेगी का नाम आया है फिर भी यह तय नहीं है कि कत्यूरियों से युद्ध करते हुए सराईखेत (कुमाऊ दुशान) में मरने वाला सिपाही नेगी हीरा नेगी वही था जिसकी शघाई तीलू रौतेली से हुई थी. कत्यूरियों से युद्ध लड़ते हुए नियति की कुरुर हाथों तीलू के पिता मंगेतर और दोनों भाई भगतु और पथवा गोरला के युद्ध भूमि प्राण न्योछावर हो गए थे !

तब तीलू मात्र 15 बर्ष की थी और बाल विधवा कहलाई कहते हैं इसके बाद थोकदारों में एक प्रचालन हो गया था कि वे लडकी पैदा होते ही उसे गाड़ देते थे. लेकिन थोकदार भुप्पा गोरला ने ऐसा नहीं किया. तीलू की माँ ने तीलू रौतेली के मन में प्रतिशोध की ज्वाला जगाई की तीलू घायल सिंहनी बन गयी ,शास्त्रों से लेस सैनिकों तथा “बिंदुली” नाम की घोड़ी और दो सहेलियों बेल्लु और देवली को साथ लेकर युद्ध के लिए प्रस्थान किया! सबसे पहले तीलू रौतेली ने खैरागढ़ (वर्तमान कालागढ़ के समीप) को कत्यूरियों से मुक्त करवाया ! उसके बाद उमटागढ़ी पर धावा बोला फिर वह अपने सैन्य दल के साथ “सल्ट महदेव” पंहुची वहां से भी शत्रु दल को भगाया,इस जीत के उपरान्त तीलू ने “भिलण भौण” की ओर प्रस्थान किया तीलू दो सहेलियों ने इसी युद्ध में मृत्यु का आलिंगन किया! वीरांगना तीलू रौतेली चौखुटिया तक गढ़ राज्य की सीमा निर्धारित कर देने के बाद तीलू अपने सैन्य दल के साथ देघाट पहुंची ! जोगिमढी से आगे कालिंका खाल में तीलू का शत्रु से घमासान संग्राम हुआ शत्रुओं को पीछे धकेलती वीरोंखाल के युद्ध में तीलू के मामा “रामू भंडारी तथा सराईखेत युद्ध में तीलू के पिता भूपू ने युद्ध लड़ते -लड़ते अपने प्राण त्याग दिए ! अब तो तीलू जैसे खून से नहाई हुई हो उसका ऐसा अवतार देख कैत्युरी भय से कांप उठे. सराईखेत में कई कत्यूरियों को मौत के घाट उतार तीलू अपने पिता की मृत्युका बदला लिया और कत्युरी रणभूमि छोड़ भाग खड़े हुए. इसी जगह पर तीलू की घोड़ी “बिंदुली ” भी शत्रु दल का निशाना बनी! तल्ला कांडा शिविर के समीप थकान मिटाने के बाद पूर्वी नयार नदी में स्नान करते समय जब रामू रजवार नामक एक घायल कत्युरी सेनापति ने तीलू रौतेली को देखा तो वह ग्लानी से शर्मसार हो गया उसने कभी कल्पना भी नहीं की थी कि जो पूरी गढ़वाली सेना का नेतृत्व कर कत्यूरियों का इतना बड़ा साम्राज्य छीन गयी वह कोई महिला होगी. वह स्नान में मग्न तीलू की डूबकी लगाने का इन्तजार करता रहा और जैसे ही तीलू रौतेली ने डूबकी लगाईं रामू रजवार ने तीलू पर पीछे से तलवार से वार कर उन्हें मौत के घाट उतार दिया. कहते हैं रामू रजवार ग्लानी में इतना डूबा हुआ था कि उसने तीलू को मौत के घाट उतारने के बाद खुद भी आत्महत्या कर ली.

आज भी तीलू रौतेली का पूर्वी नयार के ओर-पोर बीरोंखाल क्षेत्र में रण भूत नचाया जाता है . जब तीलू रौतेली नचाई जाती है तो अन्य बीरों के रण भूत /पश्वा जैसे शिब्बू पोखरियाल, घिमंडू हुडक्या, बेलु -पत्तू सखियाँ , नेगी सरदार आदि के पश्वाओंको भी नचाया जाता है . सबके सब पश्वा मंडांण में युद्ध नृत्य के साथ नाचते हैं” आज भी आप शांत चित्त से अगर पूर्वी नयार के कलकल के बीच तल्ला कांडा के नीचे या आस-पास से गुजर रहे होंगे तो महसूस करेंगे कि घिमडू हुडक्या की “धकी धैs धैs हुड्क्या बोल हवा में तैरते सुनाई देंगे.
ऐसी वीरांगना जिसने मात्र 20 बर्ष की उम्र में ही इस गढ़देश की रक्षा के लिए 7 युद्ध लडे व जीते हों उसकी मूर्तियों के जाले तक हम साफ़ न कर पायें तो यह हमारी अकर्मण्यता नहीं तो और क्या है.