लोकसभा में 130 दागी सांसद, विधानसभा के साथ चुनाव ठीक नहीं: छोकर

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नैनीताल : मौजूदा लोकसभा के 190 सांसद तथा देश की विधान सभाओं के 30 फीसद विधायकों पर आपराधिक मुकदमे दर्ज हैं। दस फीसदी विधायकों पर तो हत्या, हत्या के प्रयास, दुष्कर्म जैसे संगीन मामले दर्ज हैं। जिनमें तीन विधायक उत्तराखंड के भी शामिल हैं।  वहीँ संस्था हर बार चुनाव से पहले राजनीतिक दलों को आपराधिक मुकदमे वाले नेताओं को टिकट नहीं देने के लिए पत्र लिखती रही है।

यह बात आज यहाँ एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक राइट्स (एडीआर) के संस्थापक जगदीप छोकर ने एक मुलाकात क दौरान कही।  उन्होंने कहा लोक सभा व राज्य विधान सभा चुनाव एक साथ कराने का प्रस्ताव लोकतंत्र की सेहत के लिए सही नहीं है। इससे क्षेत्रीय दलों का अस्तित्व खतरे में पड़ जाएगा और राज्यों महत्व भी कम होगा। इतना ही नहीं इससे संघीय ढांचा कमजोर होने की भी संभावना है।

बुधवार को नैनीताल प्रशासन अकादमी में में आये जगदीप छोकर ने कहा कि इलेक्ट्रोरल बांड जारी करने के फैसले से पारदर्शिता खत्म होगी। उन्होंने बताया  संस्थाओं के सहयोग से लोकतांत्रिक सुधार की दिशा में काम कर रही है।

जगदीप छोकर ने कहा 1999 में एडीआर ने दिल्ली हाईकोर्ट में जनहित याचिका दायर कर चुनाव में नामांकन पत्र के साथ प्रत्याशियों पर दर्ज मुकदमे हलफनामे के साथ बताने का दिशा-निर्देश जारी करने की मांग की थी। इसके बाद से ही वर्ष 2011 में हाईकोर्ट ने अहम फैसला देते हुए उम्मीदवारों से पुराने लंबित केसों की जानकारी देने, संपत्ति व उधार का ब्योरा देने, शैक्षिक योग्यता बताना अनिवार्य कर दी थी।

उन्होंने बताया कि इस फैसले के खिलाफ तत्कालीन केंद्र सरकार सुप्रीम कोर्ट चली गई और सभी राजनीतिक दल पक्षकार बन गए।वहीँ उच्चतम न्यायालय ने  2002 में सुप्रीम कोर्ट ने याचिका खारिज कर दी और साथ ही निर्वाचन आयोग को दो माह में इसे लागू करने का निर्देश दिए।

उन्होंने बताया कि आठ जुलाई 2002 को देश के 22 सियासी दलों की बैठक हुई और केंद्र सरकार ने अध्यादेश लागू करने की तैयारी की तो एडीआर समेत अन्य लोकतंत्र समर्थक संस्थाओं ने तत्कालीन राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम से मुलाकात कर अध्यादेश जारी करने की सिफारिश ना मानने का अनुरोध किया था। एक बार कलाम द्वारा अध्यादेश लौटा दिया गया मगर दुबारा फिर केंद्र ने भेज दिया तो संवैधानिक बाध्यता के चलते उसे मंजूरी प्रदान कर दी गयी। उन्होंने बताया यह मामला फिर सुप्रीम कोर्ट पहुंचा और 13 मार्च 2003 को जनप्रतिनिधित्व कानून में संशोधन को असंवैधानिक करार दिया गया।